Manikarnika Movie Review : Kangana Ranaut को छोड़कर सबकुछ 'बेअसर' - News Latest News On Current Affairs And Live News.

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Friday, January 25, 2019

Manikarnika Movie Review : Kangana Ranaut को छोड़कर सबकुछ 'बेअसर'

आमतौर पर जब आप किसी भी चर्चित चेहरे की बायोपिक रुपहले पर्दे पर देखते हैं तो आस इसी बात की रहती है कि उस शख्सियत के बारे में कुछ नया जानने को मिलेगा. कुछ ऐसे तथ्य फिल्म देखते वक्त हाथ लगेंगे जिसकी जानकारी पहले नहीं थी. मणिकर्णिका इस मापदंड पर पूरी तरह से मात खा जाती है. इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसके पहले आपने इतिहास की किताबों में नहीं पढ़ा है. फिल्म देखते वक्त एक अंडर व्हेल्मिंग एहसास हमेशा बना रहता है. अगर आप 1828 से लेकर 1857 के विद्रोह तक के पीरियड की बात करते हैं तो इस बात की जानकारी सभी को है कि वो कोई ग्लैमर से सराबोर पीरियड नहीं था. अगर नहीं था तो सेट पर इतने तामझाम करने की जरुरत क्या थी. क्या चीजों को सरल तरीके से पेश नहीं किया जा सकता था? मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ झांसी देखते वक्त किसी नएपन का एहसास नजर नहीं आता है. गनीमत है कि कंगना ने अपने अभिनय से फिल्म की लाज बचा ली है लेकिन निर्देशन में वो मात खा गई हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी से संघर्ष की कहानी मणिकर्णिका की कहानी पूरी तरह से लीनियर पैटर्न पर चलती है. बनारस में जब मणिकर्णिका घाट पर मणिकर्णिका (कंगना) का नामकरण होता है तब पंडित उसके भविष्य के बारे में यही कहते हैं कि उसकी लंबी आयु के बारे में तो वो कुछ नहीं बता सकते लेकिन ये शर्तिया है कि उसका नाम आगे चलकर इतिहास के पन्नों में जरूर शुमार होगा. मणिकर्णिका या फिर मनु या फिर छबीली का बचपन बड़े ही लाड प्यार में बीतता है. बात जब शादी तक पहुंचती है तब दीक्षित जी (कुलभूषण खरबंदा) की मदद से बिठूर घराने की मणिकर्णिका, झांसी के महाराज गंगाधर राव (जिस्शु सेनगुप्ता) से शादी के बाद झांसी की रानी बन जाती है. अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि झांसी पर है और वो कैसे भी झांसी को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दायरे में लाना चाहते हैं. मणिकर्णिका को ये बात मंजूर नहीं है और उसके बाद झांसी को अंग्रेजों से बचाने का शंखनाद बज उठता है. कई एक्टर्स के टैलेंट के साथ अन्याय सच्चाई यही है कि इस फिल्म में बेवजह कई चीजों को बर्बाद किया गया है चाहे वो फिल्म के सितारे हों या फिर इसका बैक ग्राउंड म्यूजिक या फिर सेट को सजाने की कोशिश. इस फिल्म में अतुल कुलकर्णी, डैनी और अंकिता लोखंडे जैसे कुछ एक सशक्त कलाकार हैं लेकिन पूरी फिल्म में उनको हाशिए पर डाल दिया गया है. अगर अतुल कुलकर्णी के दर्शन शुरू और अंत में होते हैं तो वहीं दूसरी ओर अंकिता लोखंडे को भी कुछ सीन के लिए ही फिल्म में इस्तेमाल किया गया है. डैनी की भूमिका बेहद ही स्टीरियो टाइप है जिसको वो अपने करियर में कई दफा कर चुके हैं. जीशान अयूब का ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान के बाद एक और कमजोर अभिनय का नमूना इस फिल्म में दिया है. मुझे पक्का यकीन है कि सोनू सूद इस फिल्म को देखने के बाद जरूर मुस्कुराएंगे. फिल्म ये गायब बुंदेलखंड की संस्कृति फिल्म का लाउड बैकग्राउंड स्कोर आपके कानों को परेशान करेगा. इस फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक चलता ही रहता है. एक पल के लिए भी राहत नहीं मिलती और कुछ समय के बाद इससे चिढ़ मचने लगती है. लेकिन इसके भी ऊपर इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी ये है कि फिल्म के दो निर्देशक उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और बिठूर के इलाके का मिजाज फिल्म में दिखने में नाकामयाब रहे हैं. न वहां की भाषा और न ही वहां की संस्कृति के दीदार फिल्म में होते हैं. मुझे इस बात को जानना है कि इस तरह की फिल्मों में जो अंग्रेज अभिनेताओं की टोली लाई जाती है उनको कौन लेकर आता है? हर किरदार अपने आप में बचकाना लगता है और खराब अभिनय कोई उनसे सीखे. कंगना के अलावा सब साधारण अगर कंगना इस फिल्म में सिर्फ अभिनय करतीं तो वो ज्यादा बेहतर होता. फिल्म को देखकर नजर आता है कि उनकी निर्देशन की धार में पैनापन नहीं है. प्रसून जोशी का काम भी इस फिल्म में बेहद साधारण है. फिल्म के डायलॉग प्रसून जोशी की कलम से निकले हैं और देखकर लगता है कि अब शायद उनको इस काम में ज्यादा मजा नहीं आ रहा था. विजयेंद्र प्रसाद ने इस फिल्म की कहानी लिखी है जो इसके पहले बजरंगी भाईजान और बाहुबली जैसी फिल्में लिख चुके हैं लेकिन इस फिल्म की कहानी में कोई उतार चढ़ाव नहीं है जिसकी वजह से इसका स्वाद फीका रह जाता है. कुछ एक सीन्स फिल्म में हैं जिसको देखने में मजा आता है मसलन की जब लक्ष्मीबाई अंग्रेज अफ़सर जनरल हय्यु रोज को घोड़े पर सवार होकर खींचकर अपने किले में ले जाने की कोशिश करती है या फिर जब मणिकर्णिका तलवारबाजी करती है. लेकिन ऐसे मौके फिल्म में बेहद कम हैं. आजादी की लड़ाई की कहानी को बख्श दो फिल्म की लाज कुछ हद तक कंगना अपने अभिनय से बचाने में कामयाब रही हैं. कंगना पर्दे पर झांसी की रानी नज़र आती हैं और उनके मनैरिज्म काफी हद तक हमको मणिकर्णिका की याद दिलाता है. लेकिन जो गलती ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान ने आमिर खान को लेकर की थी वो गलती यहां भी दोहराई गई है. पूरी फिल्म में कंगना को एक तरह से शो केस करने की कोशिश की गई है. ऐसा बताने की कोशिश गआ है कि वो किसी डी सी कॉमिक्स की किरदार हैं जिनके पास सुपरपावर है. अगर इस फिल्म को ग्लैमराईज नहीं किया गया होता तो इसका मिजाज कुछ और हो सकता था. मंगल पांडे - द राइजिंग, ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान और अब मणिकर्णिका - ये तीनों फिल्में शायद एक तरह का इशारा हैं कि फिल्म जगत 1857 का आसपास के दौर के साथ खिलवाड़ ना करे तो बेहतर होगा. कोशिश करेंगे तो मुंह की खानी पड़ेगी. मणिकर्णिका में मसाले मौजूद हैं लेकिन कमी थी एक अच्छे महाराज यानी डायरेक्टर की जो अच्छा पकवान या फिल्म बना सकता था.

from Latest News मनोरंजन Firstpost Hindi https://hindi.firstpost.com/entertainment/hindi-review-movie-manikarnika-the-queen-of-jhansi-bags-2-stars-in-review-other-than-kangana-nothing-is-great-in-the-film-lack-of-direction-is-the-biggest-problem-186308.html
आमतौर पर जब आप किसी भी चर्चित चेहरे की बायोपिक रुपहले पर्दे पर देखते हैं तो आस इसी बात की रहती है कि उस शख्सियत के बारे में कुछ नया जानने को मिलेगा. कुछ ऐसे तथ्य फिल्म देखते वक्त हाथ लगेंगे जिसकी जानकारी पहले नहीं थी. मणिकर्णिका इस मापदंड पर पूरी तरह से मात खा जाती है. इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसके पहले आपने इतिहास की किताबों में नहीं पढ़ा है. फिल्म देखते वक्त एक अंडर व्हेल्मिंग एहसास हमेशा बना रहता है. अगर आप 1828 से लेकर 1857 के विद्रोह तक के पीरियड की बात करते हैं तो इस बात की जानकारी सभी को है कि वो कोई ग्लैमर से सराबोर पीरियड नहीं था. अगर नहीं था तो सेट पर इतने तामझाम करने की जरुरत क्या थी. क्या चीजों को सरल तरीके से पेश नहीं किया जा सकता था? मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ झांसी देखते वक्त किसी नएपन का एहसास नजर नहीं आता है. गनीमत है कि कंगना ने अपने अभिनय से फिल्म की लाज बचा ली है लेकिन निर्देशन में वो मात खा गई हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी से संघर्ष की कहानी मणिकर्णिका की कहानी पूरी तरह से लीनियर पैटर्न पर चलती है. बनारस में जब मणिकर्णिका घाट पर मणिकर्णिका (कंगना) का नामकरण होता है तब पंडित उसके भविष्य के बारे में यही कहते हैं कि उसकी लंबी आयु के बारे में तो वो कुछ नहीं बता सकते लेकिन ये शर्तिया है कि उसका नाम आगे चलकर इतिहास के पन्नों में जरूर शुमार होगा. मणिकर्णिका या फिर मनु या फिर छबीली का बचपन बड़े ही लाड प्यार में बीतता है. बात जब शादी तक पहुंचती है तब दीक्षित जी (कुलभूषण खरबंदा) की मदद से बिठूर घराने की मणिकर्णिका, झांसी के महाराज गंगाधर राव (जिस्शु सेनगुप्ता) से शादी के बाद झांसी की रानी बन जाती है. अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि झांसी पर है और वो कैसे भी झांसी को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दायरे में लाना चाहते हैं. मणिकर्णिका को ये बात मंजूर नहीं है और उसके बाद झांसी को अंग्रेजों से बचाने का शंखनाद बज उठता है. कई एक्टर्स के टैलेंट के साथ अन्याय सच्चाई यही है कि इस फिल्म में बेवजह कई चीजों को बर्बाद किया गया है चाहे वो फिल्म के सितारे हों या फिर इसका बैक ग्राउंड म्यूजिक या फिर सेट को सजाने की कोशिश. इस फिल्म में अतुल कुलकर्णी, डैनी और अंकिता लोखंडे जैसे कुछ एक सशक्त कलाकार हैं लेकिन पूरी फिल्म में उनको हाशिए पर डाल दिया गया है. अगर अतुल कुलकर्णी के दर्शन शुरू और अंत में होते हैं तो वहीं दूसरी ओर अंकिता लोखंडे को भी कुछ सीन के लिए ही फिल्म में इस्तेमाल किया गया है. डैनी की भूमिका बेहद ही स्टीरियो टाइप है जिसको वो अपने करियर में कई दफा कर चुके हैं. जीशान अयूब का ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान के बाद एक और कमजोर अभिनय का नमूना इस फिल्म में दिया है. मुझे पक्का यकीन है कि सोनू सूद इस फिल्म को देखने के बाद जरूर मुस्कुराएंगे. फिल्म ये गायब बुंदेलखंड की संस्कृति फिल्म का लाउड बैकग्राउंड स्कोर आपके कानों को परेशान करेगा. इस फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक चलता ही रहता है. एक पल के लिए भी राहत नहीं मिलती और कुछ समय के बाद इससे चिढ़ मचने लगती है. लेकिन इसके भी ऊपर इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी ये है कि फिल्म के दो निर्देशक उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और बिठूर के इलाके का मिजाज फिल्म में दिखने में नाकामयाब रहे हैं. न वहां की भाषा और न ही वहां की संस्कृति के दीदार फिल्म में होते हैं. मुझे इस बात को जानना है कि इस तरह की फिल्मों में जो अंग्रेज अभिनेताओं की टोली लाई जाती है उनको कौन लेकर आता है? हर किरदार अपने आप में बचकाना लगता है और खराब अभिनय कोई उनसे सीखे. कंगना के अलावा सब साधारण अगर कंगना इस फिल्म में सिर्फ अभिनय करतीं तो वो ज्यादा बेहतर होता. फिल्म को देखकर नजर आता है कि उनकी निर्देशन की धार में पैनापन नहीं है. प्रसून जोशी का काम भी इस फिल्म में बेहद साधारण है. फिल्म के डायलॉग प्रसून जोशी की कलम से निकले हैं और देखकर लगता है कि अब शायद उनको इस काम में ज्यादा मजा नहीं आ रहा था. विजयेंद्र प्रसाद ने इस फिल्म की कहानी लिखी है जो इसके पहले बजरंगी भाईजान और बाहुबली जैसी फिल्में लिख चुके हैं लेकिन इस फिल्म की कहानी में कोई उतार चढ़ाव नहीं है जिसकी वजह से इसका स्वाद फीका रह जाता है. कुछ एक सीन्स फिल्म में हैं जिसको देखने में मजा आता है मसलन की जब लक्ष्मीबाई अंग्रेज अफ़सर जनरल हय्यु रोज को घोड़े पर सवार होकर खींचकर अपने किले में ले जाने की कोशिश करती है या फिर जब मणिकर्णिका तलवारबाजी करती है. लेकिन ऐसे मौके फिल्म में बेहद कम हैं. आजादी की लड़ाई की कहानी को बख्श दो फिल्म की लाज कुछ हद तक कंगना अपने अभिनय से बचाने में कामयाब रही हैं. कंगना पर्दे पर झांसी की रानी नज़र आती हैं और उनके मनैरिज्म काफी हद तक हमको मणिकर्णिका की याद दिलाता है. लेकिन जो गलती ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान ने आमिर खान को लेकर की थी वो गलती यहां भी दोहराई गई है. पूरी फिल्म में कंगना को एक तरह से शो केस करने की कोशिश की गई है. ऐसा बताने की कोशिश गआ है कि वो किसी डी सी कॉमिक्स की किरदार हैं जिनके पास सुपरपावर है. अगर इस फिल्म को ग्लैमराईज नहीं किया गया होता तो इसका मिजाज कुछ और हो सकता था. मंगल पांडे - द राइजिंग, ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान और अब मणिकर्णिका - ये तीनों फिल्में शायद एक तरह का इशारा हैं कि फिल्म जगत 1857 का आसपास के दौर के साथ खिलवाड़ ना करे तो बेहतर होगा. कोशिश करेंगे तो मुंह की खानी पड़ेगी. मणिकर्णिका में मसाले मौजूद हैं लेकिन कमी थी एक अच्छे महाराज यानी डायरेक्टर की जो अच्छा पकवान या फिल्म बना सकता था.

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